आलिंगन घडे मोक्ष सायुज्यता जोडे !!
ऐसा संतांचा महिमा झाली बोलायची सीमा!! (संत तुकाराम).
देवा देवपण देणे हे कलाकारांचे असे कर्तव्य ,
संतांची संगती ठरवी देवाचं गंतव्य .
विठ्ठल रुखमाचे मुले चार मुक्ता ज्ञाना सोपा निवृती यांचा सोपा विचार .
नरसी ते घुमान नामा फडकविली पताका ,पाथरी ते शिर्डी गेली साईची नौका.
भंडारा डोंगरी तुका गाई भागवत , एकनाथ पैठणचा असे दत्ताचा भक्त .
जांब समर्थाचे भांडवल हे मन , देवगिरी जनार्दन पुजे दत्तध्यान .
भजे विष्णू, शिव, शक्ती आणि नाथजन, अखंड ज्यांची कीर्ती लाभले कलियुगी भोळेपण .
करती जे वर्तमानाचे उत्तम आकलन आणि घडवी नाम संकीर्तन.
मीरा , गोरा, चोखामेळा , सावता, नरहरी अन् निळा.
जीवनी ज्यांनी रचिला नाम सोहळा.
आजच्या गणांना नाही उरला फार वेळ , सार त्यासाठी मनाचे श्लोक आणि हरिपाठ सरळ .
म्हणे कुसुमाग्रज शिवा , ध्यानी ठेवावा हा ठेवा .
गायिलेल्या कथा "गाथासार" नामासाठी जपावा.
ऋषि वशिष्ठ जी के 100 पुत्रों के वध के बाद की ये कहानी है ।
सार यही है कि जन्मभर का तप और आधा क्षण सत्संगति दोनो बराबर है।
ऋषि के मुख पर एक अपूर्व आभा दिखाई दी। उन्होंने कहा- आज भी विश्वामित्र क्रोध के मारे ज्ञान-शून्य हैं। उन्होंने निश्चय किया है कि आज भी वशिष्ठ उन्हें ब्रह्मर्षि न कहे तो उनके प्राण ले लेंगे। उधर अपना संकल्प पूरा करने के लिए विश्वामित्र हाथ में तलवार लेकर कुटी से बाहर निकले। उन्होंने वशिष्ठ की सारी बातचीत सुन ली। तलवार की मूंठ पर से हाथ की पकड़ ढीली हो गई।
सोचा, आह! क्या कर डाला मैंने! पश्चाताप से हृदय जल उठा। दौड़े-दौंडे गए और वशिष्ठ के चरणों पर गिर पड़े। इधर वशिष्ठ उनके हाथ पकड़कर उठाते हुए बोले - उठो ब्रह्मर्षि, उठो। आज तुमने ब्रह्मर्षि-पद पाया हैं।
विश्वामित्र ने कहा - आप मुझे ब्रह्मविद्या-दान दीजिए। वशिष्ठ बोले अनंत देव (शेषनाग) के पास जाओ, वे ही तुम्हें ब्रह्मज्ञान की शिक्षा देंगे
विश्वामित्र वहां जा पहुंचे, जहां अनंत देव पृथ्वी को मस्तक पर रखे हुए थे। अनंत देव ने कहा, मैं तुम्हें ब्रह्मज्ञान तभी दे सकता हूं जब तुम इस पृथ्वी को अपने सिर पर धारण कर सको, जिसे मैं धारण किए हुए हूं।
तपोबल के गर्व से विश्वमित्र ने कहा, आप पृथ्वी को छोड़ दीजिए, मैं उसे धारण कर लूंगा।
अनंत देव ने कहा, अच्छा, तो लो, मैं छोड़े देता हूं। और पृथ्वी घूमते-घूमते गिरने लगी। विश्वामित्र ने कहा, मैं अपनी सारी तपस्या का फल देता हूं। पृथ्वी! रुक जाओ। फिर भी पृथ्वी स्थिर न हो पाई। अनंत देव ने उच्च स्वर में कहा, विश्वामित्र, पृथ्वी को धारण करने के लिए तुम्हारी तपस्या काफी नहीं है। तुमने कभी साधु-संग किया है? उसका फल अर्पण करो।
विश्वामित्र बोले, क्षण भर के लिए वशिष्ठ के साथ रहा हूं। अनंत देव ने कहा, तो उसी का फल दे दो।
विश्वामित्र बोले, अच्छा, उसका फल अर्पित करता हूं। और धरती स्थिर हो गई। तब विश्वामित्र ने कहा, देव! अब मुझे आज्ञा दें।
अनंत देव ने कहा, जिसके क्षण-भर के सत्संग का फल देकर तुम समस्त पृथ्वी को धारण कर सके, उसे छोड़कर मुझसे ब्रह्मज्ञान मांग रहे हो?
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